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अरे आपन भासा के बारे में का कही.. एतना प्रेम है बोली मा कि बताये नहीं सकित है... कुछ भी बोल देयो कोहु को, सब अच्छे लागत है...जब हमाये पापा अम्मा से पूछत है कि बिट्टू की अम्मा चाय पीहो का और अम्मा जवाब देती है कि हां बिट्टू के बाबू पीबे, तो अइसा कहू से नहीं लागत कि दुइ पढ़े-लिखे लोग बात कई रहे है. अइसा लागत है कि गाओ के हरियाली के बीच दो हंस के जोड़े एक दुसरे का प्यार से निहार रहे हैं.
कुछ समझ आया? क्या कह गई मैं अपनी 'बोली' में? चलिए कुछ आसान कर देती हूं पहेली. ये जो ऊपर लिखा है इसका मतलब है, 'अपनी भाषा के बारे में क्या कहू, इतना प्रेम है इसमें कि बताया नहीं जा सकता. किसी को बोल दो कुछ भी, सब अच्छा ही लगता है. जब मेरे पापा अम्मा से पूछते हैं कि बिट्टू की अम्मा चाय पियोगी और वो बोलती है हां बिट्टू के बाबू पियूंगी, तो ये कहीं से नहीं लगता है कि दो पढ़े-लिखे लोग बात कर रहे हैं. ऐसा लगता था कि गांव की हरियाली में हंस का जोड़ा एक दूसरे को प्यार से निहार रहा हो.'
अपनी बोली के बारे में बताने से पहले थोड़ा मैं अपने घर के बारे में बताना चाहूंगी. मैं एक अच्छे पढ़े-लिखे परिवार से हूं, जो कि UP की एक जगह 'रायबरेली' से आता है. जी, वही रायबरेली, जो गांधी परिवार का गढ़ रहा है और आज भी है. इस छोटी सी जगह में हर बड़ा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, सब गांधी परिवार के नाम पर है. हमारी बोली वैसे तो मूलतः हिंदी ही है, पर क्योंकि हमारा जुड़ाव अपने गांव और अपनी मिट्टी से रहा है, तो हम 'अवधी' बोलते हैं घर में.
किसी जमाने में रायबरेली भी अवध ही था. समय के साथ अवध बस लखनऊ तक सिमट कर रह गया. रायबरेली लखनऊ की नवाबियत और पूर्वांचल के ठेठ अंदाज के बीच फंसा रह गया. पर 'बोली' हमारी अवधी ही रही और ये 'हम' लखनऊ से आया है, जो 'मैं' कभी नहीं बन पाया.
अपनी बोली सबको मीठी ही लगती है, पर मुझे इसका एहसास थोड़ी देर से हुआ. बचपन में घर में अम्मा-पापा एक-दूसरे से अवधी में ही बात करते थे. मेरी छोटी बहन बड़ा चिढ़ती थी, "आप लोग ये गांव की भाषा में क्यों बोलते है..?" वो बात-बात पर उन्हें टोकती भी थी. मुझे ऐसी कोई चिढ़ नहीं थी अवधी से, पर खुद के लिए मैं सीधी और आम हिंदी ही सही समझती थी.
फिर एक बार मैं अपने मामा के गांव गई और उस बार मैंने खुद से अवधी बोलने की कोशिश की. अम्मा का बचपन बीता था वहां, तो वो एक-एक करके अपने बचपन की सहेलियों और रिश्तेदारों से मिलते जाती थी. मैं भी उनके पीछे लग लेती थी. उस बार मेरे टेढ़ी-मेढ़ी अवधी बोलने पर लोगों को मैं उनके जैसे लगी. मेरी एक पहल ने गांव के लोगों के दिलों के दरवाजे खोल दिए मेरे लिए. जिसके घर में जो था, वो लोगों ने खुलकर दिया मुझे खाने के लिए. कहीं गुड़ के लड्डू, तो कहीं शुद्ध दूध का बना मट्ठा. कहीं सादा दाल चावल भी इतना स्वादिष्ट था कि पूछो मत! एक जैसी बोली लोगों को पास ले आती है और मैंने इसको महसूस भी किया.
बस फिर क्या था, मेरा अवधी के लिए प्यार बढ़ता गया और अब वो इस हद तक है कि मैं अवधी लोकगीत और गांवों में गाए जाने वाले गीतों को ढूढकर सुनती और सहेजती हूं. मेरी मां और सासू मां भी इसमें मेरी मदद करती हैं. वो उन्हें याद अवधी गीतों को एक-एक करके मुझे याद करवाती रहती हैं. इस तरह ये अवधी गाने एक पीढ़ी से दूसरी तक जा रहे हैं. अब मैं अपने 3 साल के बेटे को भी वही गाने सुनती हूं सोते समय.
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस भी अवधी में ही लिखी और मुझे वो भी बड़ी ही पसंद है.
सितारों का योग, शादी भी ऐसे परिवार में हुई, जहां अवधी ही मूल भाषा है. जब शादी के बाद घर में रुकी गांवों की मामियों और भाभियों से उनके ही अवधी अंदाज में बात की, तो मेरी छवि एकदम से बदली है उन लोगों के मन में. सब मुझे शहर में रही, बाहर पढ़ी, अंग्रेजी बोलने वाली और गावों से चिढ़ने वाली मानकर आए थे. पर ऐसा तो था ही नहीं. मुझे तो गांवों से उतना ही प्यार था और वहां की बोली भी मुझे उतनी ही अजीज थी, जितनी उन्हें. फिर खूब हसीं मजाक, हल्ला-गुल्ला किया मैंने भाभियों के साथ मिलकर.
जब उनमें से एक भाभी ने कहा, "तुम वैसी एकदम नाही हाउ जइसन हम पंचै सोचित रहे.." (तुम वैसी बिलकुल नहीं हो, जैसा हमने सोचा था) तो बड़ा संतोष हुआ. 26 साल में जो भी सीखा-समझा हो, पर ये अवधी मेरे बड़े काम आई. हमेशा इस बोली ने मुझे लोगों के करीब पहुंचाया. इसलिए मुझे प्यार है अपनी बोली से, अपनी प्यारी दुलारी अवधी से और हमेशा रहेगा.
कबीर दास जी एक दोहा है..
बोली तो अनमोल है, जो कोई जाने बोल
हृदय तराजू तोल के, तब मुख बहार खोल
मतलब, बोली तो अनमोल है. अगर हमें पता हो कि कब किससे क्या बोलना है. इसलिए बोलने से पहले हमें अपने मन में टटोल लेना चाहिए और फिर बोलना चाहिए. कमाल की बात ये है कि ज्यादातर दोहे भी अवधी में हैं और सभी मुझे पसंद हैं.
'अवधी' तुम भी खूब हो, गूढ़ से गूढ़ ज्ञान को दो लाइनों में बोल देती हो. जुग जुग जियो तुम...
(This article was sent to The Quint by Shipra Trivedi for our Independence Day campaign, BOL – Love your Bhasha. Shipra is a software professional and a part-time blogger.
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